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Wednesday 14 September 2011

लड़ने के लिए फिर मैदान में अड़े आडवाणी

ही बहुत से लोग आडवाणी को भाजपा के नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति से अलग हो जाने की सलाह दे रहे हों लेकिन कभीलौह पुरुषकहा जाने वाला यह सक्रिय राजनैतिक दिग्गज इतनी आसानी से मैदान छोड़ने वाला नहीं है। पिछले चुनाव से पहले हमने उनकी सक्रियता देखी थी। भले ही नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं गए हों लेकिन आडवाणी ने अपनी तरफ से तैयारियों, रणनीतियों और चुनाव अभियान में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। अब वे फिर अपनी भूमिका को केंद्र में लाने का प्रयास कर रहे हैं जो कोई भी महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ करेगा।
भले
पिछले एक साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी और दूसरे विपक्षी दल संसद के भीतर-बाहर सरकार पर दबाव बनाने में जुटे हुए हैं। सरकार पर तब से शुरू हुआ दबाव अभी बरकरार है, खासकर 2जी कांड की जांच में सुप्रीम कोर्ट की पहल और फिर अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव द्वारा चलाए गए आंदोलनों की बदौलत। लोकतंत्र में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका सरकार पर दबाव बनाए रखने और उसे सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर करते रहने की ही होती है। इसके अपने राजनैतिक लाभ भी हैं, खासकर तब जब कुछ प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हों। स्वाभाविक ही है कि केंद्र और अनेक राज्यों में कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी के रूप में भारतीय जनता पार्टी मौजूदा हालात का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाना चाहेगी। आडवाणी की रथ यात्रा उस लिहाज से बहुत अस्वाभाविक नहीं है।
हालांकि यह रथ यात्रा सिर्फ सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के लिए ही समस्याएं पैदा नहीं करेगी। प्रभावित होने वाले पक्ष और भी हैं और उनका नजरिया भी असाानी से समझा जा सकता है। जन लोकपाल विधेयक, 2जी घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और काले धन के मुद्दों पर रक्षात्मक स्थिति में आई केंद्र सरकार को फिलहाल किसी तरह की राहत नहीं मिलने वाली। आडवाणी की यात्रा उसके विरुद्ध लोगों की भावनाओं को और प्रबल बनाएगी। लेकिन इस यात्रा से सबसे ज्यादा चिंता खुद भारतीय जनता पार्टी के भीतर हो रही है जिसने अपने इस वरिष्ठ नेता को करीब-करीब चुका हुआ ही मान लिया था। अपने नेतृत्व में पिछले आम चुनाव में हुई भारी पराजय और उससे पहल भारत-अमेरिका परमाणु संधि के मुद्दे पर संसद में हुए अविश्वास प्रस्ताव में मनमोहन सरकार की जीत ने आडवाणी को राजनैतिक रूप से काफी कमजोर बना दिया था। लेकिन लगभग छह दशक के राजनैतिक अनुभव वाले व्यक्ति को, और वह भी ऐसा व्यक्ति जिसने भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में सत्तारूढ़ करने में संभवतः सबसे अहम योगदान दिया, आप आसानी से खारिज नहीं मान सकते। अनुभव का अपना महत्व है और सिर्फ इस आधार पर किसी अनुभवी राजनीतिज्ञ को किनारे नहीं किया जा सकता कि आज की राजनीति में युवाओं को आगे लाए जाने की जरूरत है। युवाओं को आगे लाते हुए भी बुजुर्ग राजनीतिज्ञों को पार्टी की अगली कतार में रखा जा सकता है, यदि उनमें राजनैतिक क्षमताएं बाकी हैं।
आडवाणी के बारे में ऐसा कोई नहीं कहेगा कि वे सक्रिय नहीं रहे। सिर्फ वे स्वास्थ्य के मामले में पूरी तरह फिट हैं बल्कि आज भी भाजपा के रणनीतिक फैसलों में असरदार भूमिका निभा रहे हैं। आज भी पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर उनके जितनी स्वीकार्यता, लोकप्रियता और सांगठनिक पृष्ठभूमि रखता हो। नरेंद्र मोदी बहुत लोकप्रिय मुख्यमंत्री और भाजपा नेता हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्वीकार्यता असंदिग्ध नहीं है। गुजरात के दंगों संबंधी आरोपों की पृष्ठभूमि और राज्य में भ्रष्टाचार संबंधी आरोप उन्हें परेशान करेंगे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सर्वमान्य नेता बनने के लिहाज से उन्हें अभी काफी सफर तय करना है।
अगर प्रधानमंत्री पद के लिए स्वीकार्यता का सवाल आता है तो भाजपा के मौजूदा युवा नेतृत्व में भी ऐसा कोई सर्वमान्य नेता दिखाई नहीं देता। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी महाराष्ट्र में भले ही लोकप्रिय हों, उनकी बहुत बड़ी राष्ट्रीय पहचान और राष्ट्रीय राजनीति में विशेष पृष्ठभूमि नहीं है। अरुण जेटली राजनैतिक रणनीतियों के माहिर, प्रबल वक्ता और अच्छी छवि के काबिल राजनेता हैं लेकिन जनाधार का होना उनकी कमजोरी है। सुषमा स्वराज अच्छी वक्ता और प्रबल छवि की स्वामी अवश्य हैं लेकिन राष्ट्रीय जनाधार के मामले में वे आडवाणी से होड़ नहीं ले सकतीं। वे पारंपरिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुई नहीं रही हैं और दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कोई विशेष छाप नहीं छोड़ी थी। लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी वे मुखर भले ही हों, वजनदार नहीं दिखतीं। राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष पद पर रहते हुए काफी सक्रिय थे लेकिन पद से हटने के बाद वे उत्तर प्रदेश तक सीमित रह गए हैं। नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रबल समर्थन है और बताया जाता है कि पिछले दिनों संघ की शीर्ष बैठक में उन्हें अगले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किए जाने का फैसला हो चुका है। लेकिन गठबंधन राजनीति के जमाने में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अन्य दलों की स्वीकार्यता जरूरी है। राजग के कई दल, खासकर उसका सबसे प्रमुख सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर मोदी के साथ आने को तैयार नहीं है। हालांकि फिलहाल आडवाणी की यात्रा के प्रति पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी का समर्थन होने की बात कही जा रही है तथा दूसरे युवा नेताओं ने भी खुले आम इस पर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन यह देखने की बात है कि यात्रा के सफल होने की स्थिति में जब राष्ट्रीय नेतृत्व में स्वाभाविक हलचल होगी, क्या तब भी वे अपने इस वयोवृद्ध नेता के प्रतिसम्मानजनक मौनधारण किए रहेंगे।

आडवाणी की रथयात्रासिविल सोसायटीके उन नेताओं को भी नागवार गुजरेगी जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपार राष्ट्रीय समर्थन जुटाने में कामयाब रहे हैं। अन्ना हजारे इस मुद्दे पर राष्ट्रीय लड़ाई के प्रतीक बनकर उभरे हैं और भले ही उनके आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का परोक्ष समर्थन रहा हो, सिविल सोसायटी के नेता यह नहीं चाहेंगे कि कोई राजनैतिक दल या नेता उनके आंदोलन की उपजाऊ जमीन पर अपनी फसल उगा ले। समर्थन लेना अलग बात है और अपना आधार ही थमा देना अलग। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लालकृष्ण आडवाणी को अपनी यात्रा के दौरान अन्ना हजारे समर्थकों की नाराजगी का सामना करना पड़े। यह आरोप तो लगने ही लगा है कि वे भ्रष्टाचार विरोधी स्वतःस्फूर्त राष्ट्रीय आंदोलन को अपने तथा अपने दल की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के लिएहाईजैककरने की कोशिश कर रहे हैं।
लोकसभा में उनका यह कहना कि अगरवोट के बदले धनवाले मुद्दे में आरोप लगाने वाले सांसदों को जेल भेजा जा रहा है तो उन्हें भी जेल भेजा जाना चाहिए क्योंकि इस बारे में स्टिंग आपरेशन उनकी सहमति से हुआ था। उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार पर भाजपा के साथ भेदभाव का परोक्ष आरोप लगाते हुए उनकी चाय पार्टी से अलग रहने का फैसला भी किया और अब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर रथ यात्रा की घोषणा कर सुर्खियों में लौट आए है। माना कि भाजपा के युवा नेताओं की आशाओं पर इससे तुषारापात होगा लेकिनफेयर प्लेमें सबको खेलने का मौका मिलता है। अब वे शून्य पर आउट होते हैं या शतक बनाते हैं, यह उनकी काबिलियत पर निर्भर करेगा।
प्रश्न उठता है कि क्या प्रमुख विपक्षी दल के रूप में भाजपा को मौजूदा हालात के अनुरूप कदम नहीं उठाना चाहिए? जब पार्टी के स्तर पर कोई बड़ी पहल नहीं हो रही है तो एक अनुभवी नेता जो आप मानें या मानें पर पार्टी समर्थकों के बीच एक राष्ट्रीय आइकन और संरक्षक के रूप में देखा जाता रहा है, अपने स्तर पर ऐसी पहल करना चाहता है। इसमें गलत क्या है? क्या यह सच नहीं है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद में हंगामा करने और कुछेक प्रदर्शनों के अलावा भाजपा जमीनी स्तर पर बड़ी राष्ट्रीय मुहिम छेड़ने में कामयाब नहीं रही है? क्या यह धारणा आम नहीं है कि अन्ना हजारे इस समय वह काम कर रहे हैं जो स्वाभाविक रूप से विपक्षी दलों को करना चाहिए था? भाजपा ने अन्ना हजारे के आंदोलन को समर्थन देकर रणनीतिक रूप से एक अच्छा कदम उठाया लेकिन वह और भी बहुत कुछ कर सकती थी, जैसे कि लोकपाल के मुद्दे पर अपने अलग विधेयक का मसौदा पेश करना। सरकार के विधेयक के विकल्प के रूप में यदि पार्टी ने एक दमदार विधेयक का प्रारूप तैयार किया होता तो वह एक परिपक्व और प्रभावी कदम होता। लेकिन हालत यह थी कि अंतिम समय तक पार्टी जन लोकपाल और सरकारी लोकपाल विधयेक के ज्यादातर प्रावधानों पर अपना रुख ही तय नहीं कर पाई थी। उसके नेताओं के बयानों में भी विरोधाभास झलकता था और इसी संदर्भ में यशवंत सिन्हा तथा शत्रुघ्न सिन्हा ने इस्तीफे तक की धमकियां दी थीं। आडवाणी की रथयात्रा उस खोए हुए मौके को वापस लाने का एक बेताब प्रयास भी मानी जा सकती है, बशर्ते इसे एक व्यक्तिगत यात्रा के रूप में नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी की यात्रा के रूप में पेश किया जाए और पार्टी के सभी प्रमुख नेता इसमें सक्रिय रूप से हिस्सा लें।

पिछले दिनों आए एक टेलीविजन चैनल के जनमत सर्वेक्षण में साफ हुआ था कि भ्रष्टाचार विरोधी माहौल ने भाजपा की खासी मदद की है और कांग्रेस की तुलना में जनमत उसकी तरफ मुड़ रहा है। कांग्रेस के पक्ष में बीस प्रतिशत तो भाजपा के पक्ष में 32 प्रतिशत प्रतिभागियों ने अपना समर्थन जाहिर किया। अलबत्ता आप कांग्रेस को यूं ही खारिज नहीं कर सकते क्योंकि गांवों में विकास और रोजगार के कार्यक्रमों के जरिए उसने अपने समर्थकों का आधार काफी बढ़ाया है। ये वे लोग हैं जो किसी भी टेलीविजन चैनल के सर्वेक्षणों में हिस्सा नहीं लेते लेकिन देश की राजनीतिक तसवीर यही तय करते हैं। जागरूक मतदाताओं के बीच हालांकि कांग्रेस विरोधी रुझान साफ नजर रहा है। लेकिन भारत में जनता का रुख बदलते देर नहीं लगती और अगले लोकसभा चुनाव अभी तीन साल दूर हैं। विपक्षी दलों के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वे मौजूदा माहौल का असर तीन साल तक कायम रखें। यह कोई आसान चुनौती नहीं है और उस लिहाज से भी आडवाणी की यात्रा अहम भूमिका निभा सकती है।

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